Tuesday, May 22, 2012

ग़ज़ल :१५

ग़ज़ल :१५

सालों से बंधी जख्म की पट्टी को खोलिए
आपने देखा है जो सच उसको आज बोलिए

सूर्य से चुराकर मै यहाँ लाया हूँ एक किरण
इन नज़रो के पैमाने में उजालों को तौलिये

खुद बखुद ये बिजलियाँ चमक कर गिरेंगी
आप अपने विचारो को चेतना से घोलिये

समुन्दर भी चला आएगा प्यासे लबों तक
पहले के जमाने में माना आप खूब रो लिए

हमसे तो कहीं बेजुबां परिन्दें ही नेक है
वो चर्च मंदिर और मस्जिद भी हो लिए

अयान यह तन डुबाकर बड़ी भूल हो गयी
पापियों ने सारे पाप मेरी गंगा में धो लिए

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